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भगवत गीता दूसरा अध्याय

भगवत गीता दूसरा अध्याय
Posted By Admin on Wednesday August 17 2022 112
Bhakti Sagar » Shree Krishna








संजय ने कहा हे धृतराष्ट तब श्री कृष्ण दया से युक्त नेत्रों में आँसू भरे व्याकुल
चित अर्जुन से बोले- हे अर्जुन! अनार्य के सेवन करने योग्य अपयश कारक नरक में गिरने
वाला मोह इस समय तुम्हारे मन में कहाँ से आया| तुम कायर मत बनो| यह शोभा नहीं देता
तुम ह्रदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के निमित खड़े हो जाओ| अर्जुन ने कहा हे
मधुसूदन ! मैं रण में पूज्य भीष्म और द्रोणाचर्य के ऊपर बाण प्रहार कर कैसे युद्ध
करूँ| इसलोक मैं महात्मा गुरुजनों को न मारकर भीख मांगकर भोजन करना उत्तम है और
अर्थ की कामना के लिए तो गुरुजनों को मारकर उनके रक्त से सने भोगो को भोगूँगा| हम
नहीं जानते कि संग्राम में हम दोनों में कौन जीतेगा| यदि हम जित भी ले तो भी जिनको
मार करके हम जीवित रहना नहीं चाहते वही धृतराष्ट का पुत्र हमारे सामने प्रस्तुत
हैं| दीनता से मेरी स्वाभाविक वृति नष्ट हो गई है और धर्म के विषय में मेरा चित
मोहित हो गए है| मैं आपसे पूछता हूँ जिससे निश्चय करके मेरा भला हो वह मुझे समझकर
कहिय क्योँकि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण हूँ मुझे ज्ञान शिक्षा दीजिए| मुझे
पृथवी का निष्कंटक राज्य मिल जिए और देवताओं का भी आधिपत्य मिल जाए तो भी ऐसा कोई
उपाय नहीं देखता कि जो मेरी इन्द्रियों के सूखने वाले शोक को दूर करे| हे गोविन्द
मैं युद्ध नहीं करुगाँ| यह कहकर अर्जुन चुप हो गए| संजय बोले- हे राजन! दोनों
सेनाओं के मध्य में खिन्न होकर अर्जुन बैठे अर्जुन से भगवान शर कृष्ण ने ये वचन
कहे- हे अर्जुन ! जिसके लिए शोक नहीं करना चाहिए तू उसके लिए शोक करता है और
पंडितों के वचन तो कहता है परन्तु पंडित लोग न मारों का सोच करते है न जोवितों का|
यह बात असम्भव है कि मैं पहिले न था, तुम भी न थे और ये राजा भी न थे और इसके बाद
भी नहीं रहेंगे| जेसे देह- धारियों को इस देह की लड़कपन, जवानी, बुढ़ापा ये अवस्था
होती है तैसे  मृत्यु के बाद दूसरी देह भी प्राप्त नहीं होती है इसलिए पंडित लोग
मोह को प्राप्त नहीं होते हैं| इन्द्रिय का शब्दादि विषयोँ से संयोग जाड़ा, गर्मी
आदि सुख दुःख के देने वाला है, आने जाने वाले और नाशवान, जानकार सहन करो| हे नर
श्रेष्ट ! सुख दुःख को सामान मानने  पुरष को ये बाहर पदार्थ क्लेश नहीं देते वह
मोक्ष पाने का अधिकारी है, असत वस्तु का तो अरित्तव नहीं है और सत का आभाव नहीं है,
इस प्रकार इन दोनों को ही तत्वज्ञानी पुरुषों ने देखा है, जिससे यह सारा संसार
व्यप्त है उसका विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है| इस अविनाशी अचिन्त्य और नित्य
जीवात्मा का ये सब शरीर नाशवान हैं अतएव हे भारत ! तुम युद्ध करो जो पुरष इस आत्मा
को मरने वाला तथा जो मरने वाले मानते है| वे दोनों ही ज्ञानी नहीं है, क्योँकि यह
आत्मा न मारता है न मरता है, आत्मा न कभी जन्मती न मृत्यु को होती है, न कभी जन्मी
थे, न मरेगी, यह अजन्मा नित्य कभी न घटने - बढ़ने वाली और सनातन है| नष्ट होने पर भी
वह नाश को प्राप्त नहीं होता|

 

जो पुरष इस आत्मा को नित्य अविनाशी निविराकर और अजन्मा जनता है वह किस को घात
करावेगा और किसको मरेगा| जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को फेंककर नया वस्त्र
ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुरानी देह छोड़कर नई देह धारण करती है| आत्मा को
शस्त्र नहीं काट सकते है और अग्नि नहीं जला सकती है, जल भिगो नहीं सकता| यह न जल
सकती न भीग सकती या गल सकती है और न सूख सकती है, यह अविनाशी सर्वव्यापी सिथर अचल
और सनातन है यह इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता यह कल्पना से परे है और इसमें हेर
फेर नहीं हो सकता है| इसलिए इसे ऐसा जनता हुए तुम्हें शोक करना उचित नहीं| हे
महाबाहों यदि तुम इस आत्मा को नित्य जन्म लेने और नित्य मरने वाला मानते हो तो भी
तुमको शोक नहीं करना चाहिए| क्योँकि जो जन्मा उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु हुई है
उसका जन्म निश्चय है, अतएव और बात अनिवार्य है उसके लिए सोच करना व्यर्थ है| जन्म
ले ने से पहिला क्या था, किसी को मालूम नहीं मध्य में कुछ प्रकट होता है, फिर मरने
के पीछे क्या होगा कोई नहीं जनता| ऐसी दशा में किस बात का सोच करना तुमको उचित है|
कोई मनुष्य तो इस आत्मा को आश्चर्य से देखते है, आश्चर्यत वर्णन करना है
तो आश्चर्यत मानकर सुनता है परन्तु कोई देख, कह, सुनकर भी भली प्रकार जनता सबके
शरीर में यह आत्मा नित्य अविनाशी  कारण सब प्राणियो के विषे तुमको सोच करना उचित
नहीं, अपने धर्म को भी सोचकर तुमको धड़कना उचित नहीं हैं क्योँकि क्षत्रिय को धर्म
पूर्वक युद्ध से और कुछ भला करने वाला नहीं है | हे प्रार्थ ! बिना इच्छा किये
स्वर्ग का द्वार रूप यह युद्ध तुमको स्वतः प्राप्त हुआ है, ऐसा सुअवसर भाग्यवान
क्षत्रयों को ही मिलता है| यदि तुम अपने धर्म अनुसार इस संग्राम को नकारोगे तो अपना
धर्म और बड़ाई खो बैठोगे| सब लोग सदा तुम्हारी अपकीर्ति करेंगे और प्रतिष्ठा वाले
पुरषों के लिए अपयश का होना मृत्यु से भी बढ़कर है ये महारथी समझेंगे कि अर्जुन डरकर
संग्राम से हट गया और अब तक जो लोग तुम्हारा मान करते थे वे अपयश करने लगेंगे|
शत्रु लोग तुम्हारे पराक्रम की निंदा करते हुए अनेक प्रकार के दुर्वचन कहेगे इससे
बढ़कर दुःख तुमको क्या होगा| यदि तुम युद्ध में नष्ट हो गए तो स्वर्ग के भागी होंगे
और जीतने पर सब पृथवी तल पर राज्य करोगे इसलिए युद्ध के निर्मित दृढ़ प्रतिज्ञा होकर
खड़े हो जाओ| सुख, दुःख, लोभ, हानि, जय, पराजय इनको सामान समझकर युद्ध के लिए तैयार
हो ऐसा करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं होंगे हे पार्थ! यह ज्ञान उपदेश ज्ञान योग
के विषय में तुझे कहा गया अब निष्काम कर्मयोग के विषय सुन जिस ज्ञान को पाकर कर्म
बंधन से तेरी मुक्ति होगी| कर्मयोग मार्ग में एकबार प्रारम्भ किये कर्म का नाश नहीं
होता और विघ्न पड़ने पर भी शुभ फल होता है और इस कर्म का केवल प्रारम्भ ही सनसन के
भय से छुड़ाकर पूर्ण ब्रह्म प्राप्त करता है| निश्चय करने वाली बुद्धि इस निष्काम
कर्म में एक ही है और कामना वाले पुरुषों की बुद्धि एकाग्र नहीं रहती, उनकी शाखा
प्रशाखा होती है, ऐसी दशा में मनुष्य संदेह में रह जाता है| हे अर्जुन !अज्ञानी उस
पुषिपता वाणी को ही स्वर्ग सुख से बढ़कर कुछ नहीं समझते| स्वर्ग सुख को ही जो उत्तम
पुरुषार्थ समझते है उनको कामनाओं से चित व्याकुल होने के कारण निश्चयात्मक बुद्धि
मोक्ष साधन की नहीं उतपन्न होती कारण कि उनका चित भोगादि में सदैव निमग्न रहता है|
जिन मनुष्य का चित इस प्रकार मोह में लिप्त है और जिनकी आसक्ति भोग विलास और
ऐश्यवर्य में है ऐसे पुरुषों के अंतकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है| 


हे अर्जुन! वेद त्रिगुणात्मक (सकाम) है तुम निष्काम हो जाओ, सुख दुःख को सकाम जानकर
नित्य योग क्षेम आदि स्वार्थी में न पड़कर धीरजवान और निष्ठा हो जैसे छोटे-छोटे अनेक
जलशयों में मनुष्य का कार्य सिद्ध नहीं होता है बड़े जलशय  प्रयोजन अनायाश ही सिद्ध
जाते है, उसी तरह सम्पूर्ण वेदों में कहा हुआ काम्य कर्मो का फल ब्रह्म में भक्ति
रखने वाले मनुष्य को सहज ही, प्राप्त होता है, तुमको केवल कर्म करना चाहिए फल
तुम्हारे अधिकार में नहीं, तुम न तो फल को अभिलाषा से काम करो और निष्कर्म ही रहो,
फल की आशा त्याग कर कार्य की सफलता व् असफलता को समान मानकर तुम योगस्थ होकर कर्म
करो यही कर्म ज्ञान योग है | इस बुद्धि योग सहित कर्म से अन्य कर्म अत्यंत हीन है,
इसलिए तुम बुद्धि योग का आश्रय ग्रहण करो फल की इच्छा रखने वाले निकृष्ट होते हैं,
निष्काम कर्म करने वाला पुरुष ईश्वर कृपा से इसी संसार में सुकृत तथा दुष्कृत इस
दोनों ही का त्याग कर देता है इसलिए तुम निष्काम कर्म में प्रवृति हो वो, जो सब
कर्मो का कल्याण कारक है| कर्म फल को त्याग कर ही बुद्धि युक्त ज्ञानी पुरुष जन्म
बंधन से हटकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं| जब तुम्हारी बुद्धि मोह बन के बाहर निकल
जाएगी तब तुम्हारा मन आगे सुनने वाली तथा हुई बातों से विरक्त हो जाएगा| अनेक
श्रुति स्मृतियोँ के वचनों को सुनने से तुम्हारी बुद्धि भ्रमित हो गई है, जिस समय
वह निष्चल होकर आत्मा में सिथत होगा तभी तुमको तत्व ज्ञान प्राप्त होगा| अर्जुन ने
पूछा, हे केशव आत्म स्वरूप में निष्चल बुद्धि वाला, किसको कहा है? उसके लक्षण क्या
है और वह कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है? श्री कृष्ण जी बोले हे
अर्जुन! जो महापुरुष मकई सब कामनाओं को त्याग देते है और अपने आप ही में प्रसन्न
रहता है, उसको निष्चल बुद्धि वाला कहते है| दुःख में जिसके मन को खेद नहीं होता और
सुख में जिसको आसक्ति नहीं होती और प्रीति, भय, क्रोध जिस के जाते रहे है वह
महात्मा सिथर बुद्धि वाला मुनि कहाता है| जो सर्वत्र स्नेह करता है जो शुभ पदार्थ
प्राप्त होने से हर्ष नहीं करता अशुभ से अप्रसन्न नहीं होता उसी को सिथर बुद्धि
जानना और कछुआ जैसे अपने अंगो को सिकोड़ लेता है उसी तरह जो पुरुष अपने इन्द्रियों
को विषयों से हटाता है उसी की बुद्धि सिथर जननी चाहिए| निराहारी पुरुष के विषय घट
जाते है, परन्तु विषयों में उसकी चाह बनी रहती है, परब्रह्म का अनुभव होने पर चाहे
भी घट जाती है| हे अर्जुन! मोक्ष में प्रयत्न करने वाले विद्वान व्यक्ति को भी
प्रबल इन्द्रियाँ बलात्कार से उसके मनको जित लेती हैं| 

 

इसलिए सब इन्द्रियों को विषयो से रोक मेरे विषे तत्पर हो जावे, जिस ने इन्द्रियों
को वश में कर लिया है उसी की बुद्धि निष्चल है| जो पुरुष विषयों के ध्यान में रहता
है उसमे उसकी प्रीति हो जाती है, प्रीति होने से कामना होती है, इच्छा के पूर्ण
होने से क्रोध की उत्पति होती है, क्रोध से अविवेक होता है, अविवेक होने से स्मरण
शक्ति नष्ट हो जाती है, स्मरण शक्ति के नाश होने से बुद्धि क्षय हो जाती है, जिसकी
बुद्धि का नाश हुआ वह विनाश को प्राप्त होता है| जो पुरुष राग देष से रहित हो
इन्द्रियों से विषय सुख का अनुभव करता है और अपने मनको वश में रखता है वह शांति को
प्राप्त होता है, शांति मिलने पर सब दुखों का नाश हो जाता है, प्रसन्न चित वाले की
बुद्धि तुरंत निश्चल होती है| जो पुरुष योग युक्त नहीं है उसकी निश्चल बुद्धि
उत्पन्न नहीं होती, ईश्वर में भावना भी नहीं होती, भगवान के न होने से शांति
प्राप्त नहीं होती, अशांत को सुख कहाँ से मिलेगा? जैसे वायु नाव को जल में खींच ले 
जाता हैं, इसी प्रकार इन्द्रिया उस पुरुष की बुद्धि का नाश कर देती है, जिसका मन
विषय शक्ति से इन्द्रियों के पीछे लग जाता है| इस कारण हे महाबाहो ! जिसकी
इन्द्रिया विषयोँ से सर्वथा रोकली गई है, जो सब प्राणियो की रात है उनमे संयमी
जगाता रहता है और प्राणी मात्र जिस समय जागते हैं मुनिजनों को वह रात्रि है| जल से
भरे पूर्ण समुद्र में और नदियों का जल भरने पर भी वह अपनी मर्यादा पर रहता है| उसी
प्रकार जिस पुरुष में इच्छा न रहने पर भी सब विषय भोग प्रवेश करते है, उसी को शांति
मिलती है विषयोँ की इच्छा करने वाले को शांति नहीं मिलती, जो पुरुष, सब कामनाओं को
छोड़कर तथा इच्छा रहित विचरता है और ममता, अहंकार जिसमे नहीं है वह शांति को प्राप्त
होता है| हे पार्थ ! ब्राह्मी सिथति यही है ऐसीसिथत मिल जाने पर प्राणी फिर मोह में
नहीं फंसता और अंत समय में पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त होता है| 


|| इति श्री भागवत गीता दूसरा अध्याय समाप्तम
|| दूसरे अध्याय का माहात्म्य|| 




नारयण जी बोले हे लक्ष्मी जी! दक्षिण देश में एक पूर्ण नाम नगर था वहां एक देव
सुशर्मा बड़ा धन पात्र रहता था| वह साधु सेवा करता था| जब संत सेवा करते हुए बहुत
दिन बीते तब एक बाल नामा ब्रह्मचारी आया उसकी सेवा बहुत करी और विनय करी हे संत जी
! मुझे कृपा करके श्री नारायण जी को पाने का ज्ञान उपदेश करो जिससे मेरे जीवन का
कल्याण और मुक्ति होवे| तब ब्रह्मचारी जी ने कहा मैं तुझे गीता जी के दूसरे अध्याय
का सुनाता हूँ उसके सुनने से तेरा कल्याण होगा| तब देव सुशर्मा ने कहा, श्री गीता
जी के दूसरे अध्याय सुनने कई कोई आगे भी मुक्त हुआ है| तब बाल ने कहा मैं तुझे
पुरानी कथा सुनाता हूँ श्रवण कर एक एक अयाली वन में बकरियां चलता था और वहां मैं
भजन किया करता था| एक दिन रात को आयली बकरियां लेकर घर को चल मार्ग में एक सिंह
बैठा था| एक बकरी सब से आगे कही जाती देखकर शेर भाग गया| तब अयाली यह आश्चर्य देखकर
बड़ा चकित हुआ और मैं भी वहां आ खड़ा हुआ| उस चरवाहे ने मुझे देखकर कहा मैंने यह
आश्चर्य देखा कि बकरी को देख शेर डर के भाग गया तुम त्रिकालज्ञ हो यह वृतांत मुझे
कह सुनाओ| 

 

संत ने कहा हे आयली मैं तुझे पिछली वार्ता सुनाता हूँ| यह बकरी पिछले जन्म में डायन
थी| जब इसका भर्ता मर गया तब यह बड़े डायन भई, जिस सुन्दर लकड़े को देखे उसको खा लेवे
और यह शेर पिछले जन्म में फंदक था वह पक्षी पकड़ने बाहर गया और डायन भी वन को गई थी|
वहां डायन ने उस फंदक को खा लिया अब वही फंदक शेर हुआ और वह डायन बकरी भई, शेर को
पिछले जन्म को खबर है इसलिए बकरी को देखकर शेर ने जाना की अब भी मुझे खाने आई है तब
आयली ने कहा मैं पिछले जन्म में कौन था| तब संत ने कहा तू पिछले जन्म में चांडाल
था| तब आयली ने कहा हे ब्रह्मचारी जी कोई उपाय भी है जिसे कर हम तीनों ही इस अधम
देह से छूटे तब संतजी ने कहा हम तुम्हारे तीनों का उद्धार करते है| एक वार्ता मेरे
से सुनो प्रथम तो एक पर्वत की कंदरा में एक शीला थी उस पर श्री गीता जी का दूसरा
अध्याय लिखा हुआ था मैंने उन अक्षरों को उस शीला पर देखा था अब मैं तुम्हारे को मन
वचन और कर्म करके सुनाता हूँ| तुम श्रवण करो संतजी ने गीताजी के अक्षर सुनाये तब
उसी समय तत्काल ही आकाश में विमान आये उन सबों विमानों पर चढ़ाकर बैकुंठ लोक ले गए
अधम देह से छूटकर देव देही पाई और देव सुशर्मा भी गीता ज्ञान को सुनकर मुक्त हुआ
देवदेहि पाकर बैकुंठ को गया तब श्री नारायणजी ने कहा हे लक्ष्मी ! जो पुरुष श्री
गीता जी के ज्ञान को पढ़े सुने वह अवश्य मुक्ति को प्राप्त होता है| 


                         BHAGAVAD GITA IN HINDI CHAPTER-2 - भगवत गीता -2    ||
इति || 

Keyword : नारयण हे   || इसलिए जो संजय संत !अज्ञानी Bhagavad chapter-2 ||  अंगो
अंत अंतकरण अक्षर अक्षरों अग्नि अचल अचिन्त्य अजन्मा अतएव अत्यंत अधम अधिकार
अधिकारी अध्याय अनायाश अनार्य अनिवार्य अनुभव अनुसार अनेक अन्य अपकीर्ति अपना अपनी
अपने अपयश अप्रसन्न अब अभिलाषा अयाली अरित्तव अर्जुन अर्जुन! अर्थ अवश्य अवस्था
अविनाशी अविनाशी  अविवेक अशांत अशुभ असत असफलता असम्भव अहंकार आँसू आई आकाश आगे
आत्म आत्मा आदि आधिपत्य आने आप आपका आपकी आपसे आभाव आयली आयली  आया आया| आये आशा
आश्चर्य आश्चर्यत आश्रय आसक्ति इच्छा इति इन इनको इन्द्रिय इन्द्रिया इन्द्रियाँ
इन्द्रियों इस इसका इसके इसमें इसलिए इसलोक इससे इसी इसे ईश्वर उचित उतपन्न उत्तम
उत्पति उत्पन्न उद्धार उन उनका उनकी उनके उनको उनमे उपदेश उपाय उस उसका उसकी उसके
उसको उसमे उसी ऊपर एक एकबार एकाग्र ऐश्यवर्य ऐसा ऐसी ऐसीसिथत ऐसे और और  कंदरा कई
कछुआ  कथा कभी कर करके करता करती करते करना करने करावेगा करी करुगाँ| करूँ| करे|
करेंगे करो करो| करोगे कर्म कर्मयोग कर्मो कल्पना कल्याण कह कहकर कहता कहते कहा
कहाँ कहाता  कहिय कही कहे- कहेगे का का| काट काम कामना कामनाओं काम्य कायर कारक
कारण कार्य कि किया किये किस किसको किसी की कुछ कृपा कृष्ण के केवल केशव कैसे को
कोई कौन क्या क्योँकि क्रोध क्लेश क्षत्रयों क्षत्रिय क्षय क्षेम खबर खा खाने खिन्न
खींच खेद खो खड़ा खड़े गई गए गए| गया गया| गर्मी गल गिरने गीता गीताजी गुरुजनों
गोविन्द ग्रहण घट घटने घर घात चकित चरवाहे चल चलता चांडाल चाह चाहते चाहिए चाहिए|
चाहे चित चुप चढ़ाकर छुड़ाकर छूटकर छूटे छोटे-छोटे छोड़कर जगाता जनता जनता| जननी जन्म
जन्मती जन्मा जन्मी जब जय जल जलशय  जलशयों जला जवानी जा जाए जाएगा| जाएगी जाओ जाओ|
जागते जाता जाती जाते जानकर जानकार जानते जानना जाना जाने जावे जाड़ा जिए जित जिन
जिनकी जिनको जिस जिसका जिसकी जिसके जिसको जिसमे जिससे जिसे जी जी! जीतने जीतेगा|
जीवन जीवात्मा जीवित जेसे जैसे जो जोवितों ज्ञान ज्ञानी डर डरकर डायन तक तत्काल
तत्पर तत्व तत्वज्ञानी तथा तब तभी तरह तल तीनों तुझे तुम तुमको तुम्हारा तुम्हारी
तुम्हारे तुम्हें तुरंत तू तेरा तेरी तैयार तैसे  तो तो  त्याग त्यागकर त्रिकालज्ञ
त्रिगुणात्मक था था| थी थी| थे दक्षिण दया दशा दिन दीजिए| दीनता दुःख दुखों
दुर्बलता दुर्वचन दुष्कृत दूर दूसरा दूसरी दूसरे दृढ़ देख देखकर देखता देखते देखा
देखे देता देती देते देने देव देवताओं देवदेहि देश देष देह देह- देही दोनों
द्रोणाचर्य द्वार धन धर्म धारण धारियों धीरजवान धृतराष्ट ध्यान धड़कना नई नकारोगे
नगर नदियों नया नर नरक नष्ट नहीं नहीं| नाम नामा नारायण नारायणजी नाव नाश नाशवान
निंदा निकल निकृष्ट नित्य निमग्न निमित निराहारी निर्मित निविराकर निश्चय
निश्चयात्मक निश्चल निष्कंटक निष्कर्म निष्काम निष्चल निष्ठा ने नेत्रों पंडित
पंडितों पक्षी पकड़ने पदार्थ पर परन्तु परब्रह्म पराक्रम पराजय परे पर्वत पहिला
पहिले पाई पाकर पात्र पाने पाप पार्थ पार्थ! पिछली पिछले पीछे पुत्र पुरष पुरषों
पुरानी पुराने पुरुष पुरुषार्थ पुरुषों पुषिपता पूछता पूछा पूज्य पूर्ण पूर्वक
पृथवी प्रकट प्रकार प्रतिज्ञा प्रतिष्ठा प्रथम प्रबल प्रयत्न प्रयोजन प्रवृति
प्रवेश प्रशाखा प्रसन्न प्रस्तुत प्रहार प्राणियो प्राणी प्राप्त प्रारम्भ प्रार्थ
प्रीति पड़कर पड़ने पढ़े फंदक फंसता फल फिर फेंककर फेर बंधन बकरियां बकरी बन बनी बनो|
बलात्कार बहुत बाण बात बातों बाद बाल बाहर बिना बीते बुद्धि बुढ़ापा बैकुंठ बैठता
बैठा बैठे बैठोगे| बोलता बोले बोले- ब्रह्म ब्रह्मचारी ब्राह्मी बड़ा बड़ाई बड़े बढ़कर
बढ़ने भई भक्ति भगवत भगवान भजन भय भरने भरे भर्ता भला भली भाग भागवत भागी भाग्यवान
भारत भावना भिगो भी भीख भीग भीष्म भोग भोगादि भोगूँगा| भोगो भोजन भ्रमित मकई मत
मधुसूदन मध्य मन मनको मनुष्य ममता मर मरता मरने मरेगा| मरेगी मर्यादा महात्मा
महापुरुष महाबाहो महाबाहों महारथी मांगकर मात्र मान मानकर मानते मानने  मार मारकर
मारता मारों मार्ग मालूम माहात्म्य||  मिल मिलता मिलती मिलने मिलेगा? मुक्त मुक्ति
मुझे मुनि मुनिजनों मृत्यु में मेरा मेरी मेरे मैं मैंने मोक्ष मोह मोहित यदि यह
यही या युक्त युद्ध ये योग योगस्थ योग्य रक्त रखता रखने रण रह रहता रहती रहना रहने
रहित रहे रहेंगे| रहो राग राजन! राजा राज्य रात रात्रि रूप रोक रोकली लक्षण लक्ष्मी
लकड़े लग लगेंगे| लिए लिखा लिप्त लिया ले ले  लेकर लेता लेती लेने लेवे लोक लोग लोभ
लड़कपन वचन वचनों वन वर्णन वश वस्तु वस्त्र वह वहां वही वाणी वायु वार्ता वाला वाली
वाले विघ्न विचरता विद्वान विनय विनाश विमान विमानों विरक्त विलास विषय विषयो
विषयोँ विषयों विषे वृतांत वृति वे वेद वेदों वो व् व्यक्ति व्यप्त व्यर्थ व्याकुल
शक्ति शत्रु शब्दादि शर शरण शरीर शस्त्र शांति शाखा शिक्षा शिष्य शीला शुभ शेर शोक
शोभा श्रवण श्री श्री  श्रुति श्रेष्ट संग्राम संजय संत संतजी संदेह संयमी संयोग
संसार सकता सकता| सकती सकते सकाम सत सदा सदैव सनसन सनातन सने सफलता सब सबके सबों
समझकर समझते समझते| समझेंगे समय समर्थ समान समाप्तम || समुद्र सम्पूर्ण सर्वत्र
सर्वथा सर्वव्यापी सहज सहन सहित साधन साधु सामने सामान सारा सिंह सिकोड़ सिथत सिथति
सिथर सिद्ध सुअवसर सुकृत सुख सुन सुनकर सुनता सुनने सुनाओ|  सुनाता सुनाये सुने
सुनो सुन्दर सुशर्मा सूख सूखने से सेनाओं सेवन सेवा सोच सोचकर स्नेह स्मरण
स्मृतियोँ स्वतः स्वरूप स्वर्ग स्वाभाविक स्वार्थी हट हटकर हटाता हम हमारे हर्ष
हानि ही हीन हुआ हुआ| हुई हुए हूँ हूँ| हे हेर है है? है| है|  हैं हैं| हैं|  हो
होंगे होकर होगा होगा| होगी| होता होता|   होती होते होना होने होवे| ह्रदय






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